Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएंःदो बहनें--4


दो बहनें ः४


लाभ के रुपये से शशांक ने भवानीपुर में मन-माफ़िक एक बड़ा मकान खड़ा किया है। वह उसके शौक़ की चीज़ है। स्वास्थ्य, आराम, श्रृङ्खला के नये-नये प्लैन उसके दिमाग़ में आते हैं। कोशिश है शर्मिला को अचरज में डाल देने की। शर्मिला भी बाकायदा चकित होने में कोई कसर नहीं रखती। इंजीनियर ने एक कपड़े धोनेवाली कल स्थापित की। शर्मिला ने घूम-फिरकर देखा और खूब तारीफ़ की। मन ही मन बोली, "कपड़े आज भी जिस तरह धोबी के घर जाते हैं, कल भी जाएँगे। मैले कपड़ों के गर्दभवाहन को तो समझ गई हूँ किन्तु उसके विज्ञान-वाहन को नहीं समझती।" आलू के छिलके छुड़ानेवाले यंत्र को देखकर यह अचरज से ठक रह गई, बोली, "आलू की रसीली सब्ज़ी बनाने की बारह आना तकलीफ़ इससे जाती रहेगी।" बाद में सुना गया कि वह यंत्र फूटी डेकची, टुटी केटली आदि के साथ एक विस्मृति-शय्या पर नैष्कर्म्य पा गया है।




मकान बनकर जब तयार हो गया तो उस स्थावर पदार्थ के प्रति शर्मिला के रूद्ध स्नेह का उद्यम पिल पड़ा। सुभीता यह था कि ईंट-काठ के शरीर में धैर्य अटल बना रहता है। साजने-संवारने के महा उद्यम में दो दो नौकर हाँफ उठे। एक तो भाग ही खड़ा हुआ। कमरों की सजावट शशांक को मन में रखकर होने लगी। बैठकखाने में वह आजकल अक्सर बैठता ही नहीं, फिर भी उसीकी थकी पीठ की रीढ़ के लिये नये फ़ैशन के कुशन सजाए गए; फूलदानी एक-आध नहीं अनेकों; तिपाई पर, टेबुल पर, फूल-कढ़े झालरदार आवरण। सोने के कमरे में आजकल दिन को शशांक का आना एकदम बंद है, क्योंकि उसके आधुनिक पत्रे में रविवार भी सोमवार का जुड़वाँ भाई है। दूसरी छुट्टियों में भी जब काम बंद रहता है तो भी वह कोई न कोई छिटफुट कार्य खोज ही निकालता है, आफ़िसवाले कमरे में प्लैन बनानेवाला तेलहा काग़ज़ या बही-खाता लेकर बैठ जाता है। फिर भी पुराना नियम चल रहा है। मोटी गद्दीवाले सोफ़ा के सामने रेशमी चप्पलों के जोड़े तैयार रहते हैं। वहाँ पहले के समान ही पनबट्टे में पान सजा रहता है। आले पर पर पतले सिल्क का कुर्ता टँगा रहता है, चुनी हुई धोती लटकती रहती है। आफ़िस के कमरे में हस्तक्षेप करने में हिम्मत की ज़रूरत थी, तो भी जब शशांक वहाँ नहीं रहता उस समय शर्मिला हाथ में झाड़न लेकर प्रवेश करती है। वहाँ की रक्षणीय और वर्जनीय वस्तुओं में सजावट और श्रृंखला का समन्वय करने में उसका अध्यवसाय तनिक भी प्रतिहत नहीं होता।




शर्मिला सेवा करती है, किन्तु आजकल उस सेवा का बहुत बड़ा हिस्सा शशांक की दृष्टि के अगोचर ही रहता है। पहले उसका जो आत्मनिवेदन प्रत्यक्ष के निकट था अब उसीका प्रयोग प्रतीक के प्रति चल रहा है,--घर-द्वार सजाने में, फूल-पत्ता लगाने में, शशांक की बैठनेवाली कुर्सी को रेशम से ढँकने में, तकियों के पर्दों पर फूल काढ़ने में, आफ़िसवाले टेबुल के कोने में नील स्फटिक की फूलदानी को रजनीगन्धा के गुच्छों से सजाने में।




उसे अपने अर्ध्य को पूजा-वेदी से दूर स्थापित करना पड़ा, लेकिन बड़े कष्ट से। अभी कुछ दिन पहिले ही जो आघात लगा था उसका चिन्ह निर्जन में आँख के पानी से पोंछना पड़ा। उस दिन कार्तिक की उन्नीसवीं तारीख़ थी, यही शशांक का जन्मदिन है। शर्मिला के जीवन में यह सबसे बड़ा पर्व है। नियमानुसार बन्धु-बांधुवों का निमंत्रण किया गया। घर-द्वार विशेष भाव से फूल पत्तों से सजाया गया।




प्रातःकाल काम खत्म करके शशांक घर लौटकर बोला, "मामला क्या है, गुड़ियों का व्याह है क्या?"




"हाय रे भाग्य, आज तुम्हारा जन्मदिन है, यह भी भूल गए? कुछ भी कहो, आज शाम को तुम बाहर नहीं जा सकते।"




"बिज़िनेस मृत्यु-दिन के अतिरिक्त और किसी दिन के सामने सिर नहीं झुकाता।"




"फिर कभी नहीं कहूँगी, आज लोगों को निमंत्रण दे चुकी हूँ।"




"देखो शर्मिला, तुम मुझे खिलौना बनाकर दुनिया भर के लोगों को बुलाकर खिलवाड़ करने की कोशिश मत करो।" इतना कहकर शशांक तेज़ी से चला गया। शर्मिला सोनेवाले कमरे का द्वार बन्दकर थोड़ी देर तक रोती रही।




शाम को निमन्त्रित लोग आए। बिज़िनेस के सर्वोच्च दावे को सभी ने सहज ही स्वीकार कर लिया। यह यदि कालिदास का जन्मदिन होता और उन्होंने शकुन्तला का तृतीय अंक लिखने की उज्र पेश की होती तो सभीने उसे निश्चय ही एक अत्यन्त बेकार बहाना समझा होता। लेकिन बिजिनेस! आमोद-प्रमोद पर्याप्त हुए। नीलूबाबू ने थियेटर की नक़ल करके सबको खूब हँसाया। शर्मिला ने भी इस हँसी में योग दिया। शशांक-रहित शशांक के जन्मदिन ने शशांक-अधिष्ठित बिज़िनेस को साष्टांग प्रणिपात किया।




दुःख काफ़ी हुआ, तथापि शर्मिला के मन ने भी दूर से ही शशांक के इस धायमान कर्म-रक्ष की ध्वजा को प्रणिपात किया। उसके पास वह दुरधिगम्य कार्य है जो किसीकी ख़ातिर नहीं रुकता, किसीको नहीं मानता, स्त्री की विनती को भी नहीं, मित्रों के निमन्त्रण को भी नहीं, खुद के आराम को भी नहीं। कार्य के प्रति इस श्रद्धा के द्वारा पुरुष अपने आपको श्रद्धा करता है, यह है उसका अपनी शक्ति के निकट अपने-आपका निवेदन। शर्मिला गृहस्थी की रोज़-रोज़ की कर्मधारा के इस पार खड़ी होकर संभ्रम के साथ देखती रही है दूसरे किनारे पर चलनेवाले शशांक के कार्य को। उसकी सत्ता बहुव्यापक है, घर की सीमा छोड़कर दूर देश को चली जाती है—सुदूर समुद्र के पार, जाने-अनजाने कितने ही लोगों को वह अपने शासन-जाल में खींच लाती है। पुरुष अपने अदृष्ट के साथ नित्य जूझता रहता है, उसके कठोर मार्ग में यदि स्त्रियों का कोमल बाहुबन्धन विघ्न उपस्थित करने आवे तो निश्चय ही वह उसे निर्मम भाव से छिन्न कर देगा! इस निर्ममता को शर्मिला ने भक्ति-पूर्वक स्वीकार कर लिया। फिर भी बीच-बीच में उससे रहा नहीं जाता। जहाँ हृदय के आकर्षण को कोई अधिकार नहीं, वहाँ भी वह अपनी करुण उत्कण्ठा ले जाती, चोट खाती, परन्तु इस चोट को प्राप्य समझकर व्यथित चित्त से रास्ता छोड़कर लौट आती। जहाँ उसकी अपनी गति-विधि अवरुद्ध थी वहाँ देवता को पुकारकर कहती, 'तुम अपनी दृष्टि रखना।'






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